बह रही छाया पथ में स्वच्छन्द, सुधा सरिता लेती उच्छवास।
3.
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
4.
निशा निखरी था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ
5.
सर्वस्व-समर्पण करने को विश्वास-महा-तरु-छाया में, चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती है माया में? छाया पथ में तारक-द्युति सी झिलमिल करने की मधु लीला, अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीह्ता श्रम-शीला? निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में चाह्ती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुधराई में ।
6.
दो बूँदें: जयशंकर प्रसाद शरद का सुंदर नीलाकाश निशा निखरी, था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास पुलक कर लगी देखने धरा प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद सु शीतलकारी शशि आया सुधा की मनो बड़ी सी बूँद! लहर: जयशंकर प्रसाद वे कुछ दिन कितने सुंदर थे? जब सावन घन सघन बरसते इन आँखों की छाया भर थे।
7.
एक सपना झूठा सा जीने का विश्वास दे गया पांवों में बांध बेड़ियाँ जिन्दगी भर कांटो भारी राह पर चलने का आभास दे गया नयनो में चुभ गए मेरे खुद के आंसू कदम बढ़ाते ही आगे को फिसले पाँव गीत-घट फूटा झुलस गई लतिका तरुणाई बिखर गया मन का श्रृंगार इच्छा है मन की कि तट मेरा ना मझधार बने स्नहे-छावं ना छूटे और ना उनकी छाया पथ में मेरे अंगार बने …….